Sunday, June 7, 2009

कुछ रोज़ युहीं...


कुछ रोज़ युहीं गुज़रते हैं
खुद से बातें करके
कभी ख्यालों में, कभी यादों में
गुम रहके 
यूँ भी हुआ है कभी
जब आँखें टिकी हों किसी पर
और थक से जाते हैं
वो एक खाली नज़र से 

सन्नाटे हैरान रहते हैं 
मेरी बे-खयाली पर
शोर भी अपनी जिल्लत पे बेचैन
हो उठते हैं
खफा वो लम्हे जो आकर
बस थम से गए हैं
अपनी अनसुनी शिकायत
पर खामोश खड़े रहते हैं

शायद चाँद की दास्ताँ
मुझसे अलग नहीं 
उसकी रौशनी में 
अब वो चांदनी नहीं 
बरामदे में बैठ 
कई रातें गुजरी हैं 
जब उसकी तन्हाई धीमे से 
नीचे उतरी है 

कुछ रोज़ अब यूँ भी गुज़रते हैं 
जब खामोशी में चाँद से
बातें होती हैं
पीली पढ़ती ये चांदनी
रात में सूख जाती है
और टिम-टिम्माते तारे
बेबसी में बुझ जाते हैं 
गुज़रा हुआ कल
आखरी हिचकी लेता है
और रात की काली में हम
गुम हो जाते हैं  ...

No comments: