Monday, December 26, 2011

ठहरा हुआ वक़्त

आज वक़्त ही नही गुज़र रहा…
बाँध रखा है जैसे उसके पैरों पे भार,
     या है शायद उसके अरमानो का वज़न
और धीरे धीरे पैरों को सरकाते
     लम्हों को बदलने की कोशिश कर रहा है वक़्त
टूटती साँसों में थक रहा है वक़्त
     कहीं थम न जाए डर रहा है वक़्त

किसी के इंतज़ार में जैसे जिंदा रहने की कोशिश
जहाँ सासें उम्मीद पे और
     नज़रें ख्वाबों पे टिकी हों
जहाँ सुकून  की दास्ताँ
     किसी की यादों में छुपी हों
जहाँ दरवाज़े से गली की वो झलक
     और आने वाले मौसम की महक हो
वहां अगर वो न आए ख्याल जिसका आँगन को है बसाए
     तो वक़्त क्यूँ न थम जाए

खिड़की से झांकती दोपहर की रौशनी
     अपनी शक्लें दीवार पे बदल रही है
कोने में बैठा गुमसुम सा वक़्त
     अब भी अपने लम्हों में उल्झा हुआ है
बस थोड़ी देर और ये धुप भी अब लौट जाएगी
     पीछे ढल्ती शाम और उसकी तन्हाई छोड़ जाएगी
रह जाएगा तो बस यकीन का एक घोंसला
     जहाँ सोयेंगे हम और रहेगा ये हौंसला
की कल फिर आएगा और शायद उसे लाएगा
     जिसके लिए वक़्त थम गया  था आज
युहीं तमन्ना को हाथों में लिए
     कुछ देर ठहर गया था आज