Saturday, December 27, 2008

तेरा दीदार हो

शाम की लाली थी या पत्ते का रंग था
कुछ छीटें खून के या आँखों का वहम था
वो पत्ता जैसे कुछ बयां करता हुआ
अपनी शाख से जुदा था
फ़िज़ाओं में अब खून, दर्द और आह का आलम था

खेतों में किसान राम था या रहीम था
जिसके खून और पसीने से जहाँ आबाद था
फिर बाजरे का सवाल मिस्कीन से क्यूँ था
तेरी भूक, तेरी आग बुझाऊंगा ज़रूर
पर बता तू है राम का या रहीम का?

किसकी किस्मत किसके रहम से रोशन है
तेरी आँखों में एक
अपनी नज़रों में जुदा क्यूँ हैं
तुझ तक पहुचने के रास्ते बहुत हैं
खुद तक पहुचने के रास्ते कम क्यूँ हैं

तेरे बन्दों में अब पहचान है उसकी
जिसमे ऐब हो इतना और समझ हो थोडी
बदलेगा कब तू अपने जहाँ को
फूल-पत्ते भी हुए कुरबान फिजा को
जल गए हम ख़ाक हुई खुशियाँ
मुखातिब है तुझसे, दीदार हो दीदार हो!