Thursday, May 5, 2011

भिछ्ड़े हम ...

अनजानी भीड़ में जाना पहचाना कोई छूट गया
हम इतने तन्हा और दिल कितना सूना हो गया
अब ख्याल आया खुद को कैद कर लें हम
अपनी धड़कन को सुने एक ज़माना सा हो गया


मेरे वफ़ा उन्की शिकायतों में सिमट के रह गए
मजबूर तमन्ना कुछ कहते कहते ही रह गए
सजाए थे जिस दामन पे आरज़ू अपने मैंने
वो दामन हाथों से छूटा और तार तार हो गया


वही वादियाँ हैं पर कितने सूने हैं नज़ारे
भीगी हैं यादें मेरे इन अश्कों के सहारे
कैसा ये सैलाब कैसा ये तूफ़ान
भिछ्ड़े वो हंस के जोड़े – एक इस किनारे एक उस किनारे