Monday, March 29, 2010

एक रूमानी सा मन

कल रात आँगन में बैठ एक टकटकी लगाए
मैं चाँद को देख रहा था
हल्की हवाओं ने भी वहां अपना डेरा जमाया था
कुछ अलग ही था वो समां
थोड़ा रूमानी शायद और कुछ जवान सा भी था

कभी बादलों का पर्दा सामने आता
तो कभी चुपके से निकल कर  
चाँद भी मुस्कुराता
हवाएं अपनी बेखयाली में  
कभी मुझसे आ टकराती  
और अचानक मेरे होने की खबर पर  
फिर थम सी जातीं  

सहसा मुझे ख़याल आया
कहीं हवाएं चाँद की हमजोली तो नहीं
ये  शाम को रोज़ यूँ आना   
कोई आंखमिचोली तो नहीं

मैं मुस्कुरा कर अन्दर लौट आया
खेल्ती पिघल्ती चांदनी को  
हवाओं के संग छोड़ आया

तब दिल ने एक दस्तक दी और कहा
कुछ रिश्तों को एक आज़ादी ही सुहाती है

क्या हो गर चांदनी को लकीरों में समेटा जाए?
या फिर,
हवाओं की मर्ज़ी पर अपनी हुकूमत चलायी जाए?

तब क्या होंगी वो शामें,
जिन्के लिखे गए हैं अफ़साने?
तब क्या बनेंगे वो ताज,
जिन्में  किसी मुमताज़  की होंगी यादें?

क्यूँ न कुछ रिश्तों को  
यूँ ही छोड़ दें हम
न कोई शर्तें हों न हो सवालों की घुटन
बस हों तो सिर्फ  
हम तुम और एक रूमानी सा मन...