Friday, February 15, 2008

दर्द...

ख़ुद से झूझता हूँ मैं
कभी रास्ता कभी मंज़िल
ढूँढता हूँ मैं
ये सफर अधूरा न रह जाए कहीं
इस का फल्सफाह
ढूँढता हूँ मैं

फ़िर उनके बीच खड़ा हूँ आज
जहाँ मेरा कोई नहीं
जैसे परिंदा कोई
आस्मान में हो
पर आस्मान अब उसका नहीं

कैसे रास्ते हैं ये
जिन्पे चलना है मुझे
बस कांटे और पत्थर
और धुंध के हैं परदे
इन परदों के पीछे
किसी धोखे की तरह
छुपा है चेहरा
जिसके होठों पे है तबस्सुम
पर ज़हर है ज़ुबाँ पे

अब तो आईना भी है पराया
कल तक था जिसमे मैं
वहाँ अब गैरों का सामान आया
मेरी तरह दिखता है वो
मेरी तरह बोलता है वो
पर जाने क्या खेल है ये
कि जब रोता हूँ मैं
तब हस्ता है वो…