Thursday, January 1, 2009

कुछ नया सा लगा

आज सुबह की ठण्ड में, हरे घास पे चलते हुए
कुछ नया सा लगा...
पिछले साल की नमीं अब भी जमीं हुई थी
पैरों में चुब्ती ठण्ड का एहसास कल सा ही था
पर न जाने क्यूँ, कुछ नया सा लगा

नीम की डाल पे बैठा परिंदा सिमटा हुआ
ज़िन्दगी से लड़ने को तैयार हुआ
कल भी यहाँ उसके बच्चों का शोर था
आज भी उनकी भूक में ज़ोर था
पर न जाने क्यूँ, कुछ नया सा लगा

मेरे कदम सहसा ही रुक पड़े
ये फूल तो कल भी यहाँ थे
रंगों में इनके कुछ ओंस के हीरे क़ैद थे
पर ये कलि यहाँ नही थी
लगता है ये यहाँ नयी थी
कुछ कहूँ कलि से मैं झुका
ज़मीन पे उसके करीब आ बैठा
उसकी भीनी खुश्बू मुझसे आ टकराई
किताबों में बंद सूखे फूलों की याद आई
जैसे कलि ने मुझसे कुछ कहा -
उन क़ैद गुज़रे लम्हों को आज़ाद कर
एक ज़िंदा लम्हा हूँ मैं, मुझसे प्यार कर

एक तोहफा शायद नए साल का
इन फूलों का, इस बहार का
बस ये याद दिलाता रहा
‘एक ज़िंदा लम्हा हूँ मैं…’
और न जाने क्यूँ, फ़िर,
कुछ नया सा लगा...

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