कल शाम अचानक बादल घिर आये
अब बरसे तब बरसे कैसे खेल रचाए
फिर जैसे रूठ के मान गए हों
हल्के हल्के पानी बरसाए
पहली छिठों ने सौंधी यादों के दिए जलाए
खिड़की के बाहर जलते हुए पत्तों ने
पानी के चटकारे लगाए
मचलती हुई बिजली ने
अपने कहकहे लगाए
और घोंसले में सहमे बच्चों को
चिड़िया अपने चोंच से समझाए
ख्यालों में इन्ही एह्सांसों को जगाए
कभी खुद से पूछता हूँ -
की इतनी दूर हम चले आये
वही रंग और सुगंध के फूल हैं पाए
फिर भी न जाने किसकी याद सताए?
वही तो है सब कुछ
जो हम पीछे छोड़ आए
गगन में वही सूरज की लाली
धरती पे वही फूलों के मेले
कीट-पतंगों की वही कहानी
जुबां अलग पर लोगों की वही जिंदगानी
फिर क्यूँ किसी चौराहे पे खड़ा है मन
एक टकटकी लगाए
क्या रह गया है अधूरा
अब किसकी चाह सताए?
सवालों की भीढ़ से गुज़रते गुज़रते
मेरे कदम एक गली में निकल आए
हर खुली खिड़की से झांकता घर मन तरसाए
हल्की किल्कारियाँ, प्यारी दुलारियां
मीठे फटकार, नींद भरी लोरियां
खेल्ता बच्चपन, महक्ता आँगन
कहानियों की ओढ़नी, पनप्ता जीवन
दुःख की बेड़ियाँ, अपनों का बंधन
लहराते रंग, झूलों के संग
- हर घर छुपाए जाने कितने रतन!
सांझे चूले में पक्ता प्यार
किन्ही पुरानी यादों का स्वाद ले आए
आँखों से धुँआ उठा और पानी छलक आए
क्या इन्ही मोतियों की तलाश में
ढूंढता भटक्ता है मन?
छूटे परिवार, अधूरे संसार
को बटोरने में लगा है मन?
घर परिवार सगों का प्यार
बड़ों के साए में बसा संसार
इन कीम्ती नगीनों को कहा से लाएं
जब उल्झे उलझते जीवन के मोड़ में
खुद ही को न ढूंढ पाएं?
किसी पेढ़ की घनी छाओं में
बैठने को आज जी लल्चाए
हरे पत्तों और छन्ति धुप तले
थोड़ी देर दिल को तस्सली दी जाए
शायद अब यूँ ही दिन गुज़रेंगे
घर के साज़ अब ख्यालों में ही गूंजेंगे
पर जो खो गया है उसका अफ़सोस क्यूँ मनाया जाए?
फिर आएगा वो, फिर मिल जाएगा वो
इसका भरोसा क्यूँ न रखा जाए?
कहीं गुज़रा हुआ कल युहीं न मिट जाए
क्यूँ न यादों को समेटा जाए
और कोई नया राग गाया जाए
ताल में जिस्के बीते दिनों की चाप हो
खट्टे-मीठे चंचल आलाप हों
और सुर से आने वाले समय की महक आए
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