Sunday, July 21, 2013

कभी यूँ टूट कर रोने का मन करता है…

 
आँखों से बेरोक आंसू बहें 
और झुलसे हुए दिल को भिगोते चलें 
कभी यूँ टूट कर रोने का मन करता है 
 
जाने कितने गम दिल छुपाए है - कुछ बोलता ही नहीं 
धडकता रहता है मानो कोई सजा हो 
न जीने की लालसा न ख़ुशी का एहसास 
वक़्त की थकी सुइयों की तरह बेजान सा चल रहा है 
 
चीख रही हो जैसे 
मेरी परछाई को कोई सुन भी नहीं रहा 
गौर करूँ तो भी कानो पे कुछ नहीं पड़ता 
बंद है जैसे किसी शीशे में 
बस बेबसी सी नज़र आती है 
 
वो मिलता क्यों नहीं जिसे मैं चाहता हूँ 
कहता कोई क्यों नहीं वो कहा है 
मायूस सा खड़ा हूँ उसके इंतज़ार में 
अब थकी थकी सी नज़र भी लौट आती है 
 
अरमानो का कब्र भी बिखर गया है 
बस यादों के फूल चढ़ा आता हूँ 
गुज़रे दिनों के झोंके सता जाते हैं 
सीने से राख कुरेद कर दफना आता हूँ 
 
कभी यूँ टूट कर रोने का मन करता है...
  कभी यूँ टूट कर रोने का मन करता है… 

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