कल रात आँगन में बैठ एक टकटकी लगाए
मैं चाँद को देख रहा था
हल्की हवाओं ने भी वहां अपना डेरा जमाया था
कुछ अलग ही था वो समां
थोड़ा रूमानी शायद और कुछ जवान सा भी था
कभी बादलों का पर्दा सामने आता
तो कभी चुपके से निकल कर
चाँद भी मुस्कुराता
हवाएं अपनी बेखयाली में
कभी मुझसे आ टकराती
और अचानक मेरे होने की खबर पर
फिर थम सी जातीं
सहसा मुझे ख़याल आया
कहीं हवाएं चाँद की हमजोली तो नहीं
ये शाम को रोज़ यूँ आना
कोई आंखमिचोली तो नहीं
मैं मुस्कुरा कर अन्दर लौट आया
खेल्ती पिघल्ती चांदनी को
हवाओं के संग छोड़ आया
तब दिल ने एक दस्तक दी और कहा
कुछ रिश्तों को एक आज़ादी ही सुहाती है
क्या हो गर चांदनी को लकीरों में समेटा जाए?
या फिर,
हवाओं की मर्ज़ी पर अपनी हुकूमत चलायी जाए?
तब क्या होंगी वो शामें,
जिन्के लिखे गए हैं अफ़साने?
तब क्या बनेंगे वो ताज,
जिन्में किसी मुमताज़ की होंगी यादें?
क्यूँ न कुछ रिश्तों को
यूँ ही छोड़ दें हम
न कोई शर्तें हों न हो सवालों की घुटन
बस हों तो सिर्फ
हम तुम और एक रूमानी सा मन...